स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म सन् 1824
ई॰ को गुजरात प्रदेश के मौरवी क्षेत्र में टंकरा
नामक स्थान पर हुआ था । स्वामी जी का
बचपन का नाम मूल शंकर था । आपके पिता जी
सनातन धर्म के अनुयायी व प्रतिपालक माने
जाते थे । स्वामी जी ने अपनी प्रांरभिक शिक्षा
संस्कृत भाषा में ग्रहण की । धीरे-धीरे उन्हें
संस्कृत विषय पर पूर्ण र्अधिकार प्राप्त हो
गया । बाल्यकाल से ही उनके कार्यकलापों में
उनके दिव्य एवं अद्भुत रूप की झलक देखने को
मिलती थी ।
वेदों को छोड़ कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है -
इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश
का दौरा करना प्रारंभ किया और जहां-जहां वे गये प्राचीन
परंपरा के पंडित और विद्वान उनसे हार मानते गये। संस्कृत
भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धाराप्रवाह
बोलते थे। साथ ही वे प्रचंड तार्किक थे।
उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति
अध्ययन-मन्थन किया था। अतएव अकेले ही उन्होंने तीन-
तीन मोर्चों पर संघर्ष आरंभ कर दिया। दो मोर्चे तो
ईसाइयत और इस्लाम के थे किंतु तीसरा मोर्चा
सनातनधर्मी हिंदुओं का था, जिनसे जूझने में स्वामी जी को
अनेक अपमान, कलंक और कष्ट झेलने पड़े। दयानन्द ने
बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी, उसका कोई जवाब नहीं
था। वे जो कुछ कह रहे थे, उसका उत्तर न तो मुसलमान दे
सकते थे, न ईसाई, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित
और विद्वान। हिन्दू नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में आ गया
था। और अनेक समझदार लोग मन ही मन अनुभव करने लगे
थे कि वास्तव में पौराणिक धर्म की पोंगापंथी में कोई सार
नहीं है।
स्वामीजी प्रचलित धर्मों में व्याप्त बुराइयों का कड़ा
खण्डन करते थे चाहे वह सनातन धर्म हो या इस्लाम हो
या ईसाई धर्म हो। अपने महाग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में
स्वामीजी ने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया
है। उनके समकालीन सुधारकों से अलग, स्वामीजी का मत
शिक्षित वर्ग तक ही सीमित नहीं था अपितु आर्य समाज
ने आर्यावर्त (भारत) के साधारण जनमानस को भी अपनी
ओर आकर्षित किया।
सन् १८७२ ई. में स्वामी जी कलकत्ता पधारे। वहां
देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचन्द्र सेन ने उनका बड़ा
सत्कार किया। ब्राह्मो समाजियों से उनका विचार-विमर्श
भी हुआ किन्तु ईसाइयत से प्रभावित ब्राह्मो समाजी
विद्वान पुनर्जन्म और वेद की प्रामाणिकता के विषय में
स्वामी से एकमत नहीं हो सके। कहते हैं कलकत्ते में ही
केशवचन्द्र सेन ने स्वामी जी को यह सलाह दे डाली कि
यदि आप संस्कृत छोड़ कर आर्यभाषा (हिन्दी) में बोलना
आरम्भ करें, तो देश का असीम उपकार हो सकता है। तभी
से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा आर्यभाषा (हिन्दी)
हो गयी और आर्यभाषी (हिन्दी) प्रान्तों में उन्हे अगणित
अनुयायी मिलने लगे। कलकत्ते से स्वामी जी मुम्बई पधारे
और वहीं १० अप्रैल १८७५ ई. को उन्होने 'आर्य समाज'
की स्थापना की। मुम्बई में उनके साथ प्रार्थना समाज
वालों ने भी विचार-विमर्श किया। किन्तु यह समाज तो
ब्राह्मो समाज का ही मुम्बई संस्करण था। अतएव स्वामी
जी से इस समाज के लोग भी एकमत नहीं हो सके।
मुम्बई से लौट कर स्वामी जी इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) आए।
वहां उन्होंने सत्यानुसन्धान के लिए ईसाई, मुसलमान और
हिन्दू पण्डितों की एक सभा बुलायी। किन्तु दो दिनों के
विचार-विमर्श के बाद भी लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच
सके। इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से स्वामी जी पंजाब गए। पंजाब
में उनके प्रति बहुत उत्साह जाग्रत हुआ और सारे प्रान्त
में आर्यसमाज की शाखाएं खुलने लगीं। तभी से पंजाब
आर्यसमाजियों का प्रधान गढ़ रहा है।
समाज सुधार के कार्य
महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक
कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों को दूर
करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया।[4] वे
'संन्यासी योद्धा' कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध
किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण की
बात कही। वे दलितोद्धार के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों
की शिक्षा के लिए प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने बाल
विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह
का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को सृष्टि का निमित्त
कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे
तैत्रवाद के समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूल
थे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं
तथा फल भोगने में परतन्त्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी
धर्मानुयायियों को एक मञ्च पर लाकर एकता स्थापित
करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने इन्द्रप्रस्थ
(दिल्ली) दरबार के समय १८७८ में ऐसा प्रयास किया था।
उनके अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और
ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट
रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष
बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों तथा स्त्रियों
की भागीदारी के पक्षधर थे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में
उन्होंने सामाजिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के
मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा सम्बन्धी धारणाओं में
प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता
पूर्णतया प्रासङ्गिक तथा युगानुकूल है। महर्षि दयानन्द
समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो
थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी
भी थे। विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने के कारण
आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना,
विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह,
विषयासक्ति, मिथ्या भाषावादि, कुलक्षण, वेद-विद्या का
प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं
और तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने
राज्याध्यक्ष तथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों
के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने
न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रन्थों के आधार पर किए
जाने का पक्ष लिया। उनके विचार आज भी प्रासङ्गिक हैं।
मैं मानता हूँ कि गीता में कुछ भी गलत नहीं है । इसके
अलावा गीता वेदों के खिलाफ नहीं है ।
स्वराज्य के प्रथम सन्देशवाहक
स्वामी दयानन्द सरस्वती को सामान्यत: केवल आर्य
समाज के संस्थापक तथा समाज-सुधारक के रूप में ही जाना
जाता है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए किये गए प्रयत्नों में
उनकी उल्लेखनीय भूमिका की जानकारी बहुत कम लोगों को
है। वस्तुस्थिति यह है कि पराधीन आर्यावर्त (भारत) में
यह कहने का साहस सम्भवत: सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द
सरस्वती ने ही किया था कि "आर्यावर्त (भारत),
आर्यावर्तीयों (भारतीयों) का है"। हमारे प्रथम स्वतन्त्रता
समर, सन् १८५७ की क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना भी
स्वामी जी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके
प्रमुख सूत्रधार भी थे। वे अपने प्रवचनों में श्रोताओं को
प्राय: राष्ट्रीयता का उपदेश देते और देश के लिए मर
मिटने की भावना भरते थे। १८५५ में हरिद्वार में जब कुम्भ
का मेला लगा था तो उसमें शामिल होने के लिए स्वामी जी ने
आबू पर्वत से हरिद्वार तक पैदल यात्रा की थी। रास्ते में
उन्होंने स्थान-स्थान पर प्रवचन किए तथा देशवासियों की
नब्ज टटोली। उन्होंने यह महसूस किया कि लोग अब
अङ्ग्रेजों के अत्याचारी शासन से तङ्ग आ चुके हैं और देश
की स्वतन्त्रता के लिए सङ्घर्ष करने को आतुर हो उठे हैं।
क्रान्ति की विमर्श
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हरिद्वार पहुञ्च कर वहां एक
पहाड़ी के एकान्त स्थान पर अपना डेरा जमाया। वहीं पर
उन्होंने पाञ्च ऐसे व्यक्तियों से मुलाकात की, जो आगे
चलकर सन् १८५७ की क्रान्ति के कर्णधार बने। ये पाञ्च
व्यक्ति थे नाना साहेब, अजीमुल्ला खां, बाला साहब, तात्या
टोपे तथा बाबू कुंवर सिंह। बातचीत काफी लम्बी चली और
यहीं पर यह तय किया गया कि फिरङ्गी सरकार के विरुद्ध
सम्पूर्ण देश में सशस्त्र क्रान्ति के लिए आधारभूमि तैयार
की जाए और उसके बाद एक निश्चित दिन सम्पूर्ण देश में
एक साथ क्रान्ति का बिगुल बजा दिया जाए। जनसाधारण
तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) सैनिकों में इस क्रान्ति की
आवाज को पहुञ्चाने के लिए 'रोटी तथा कमल' की भी
योजना यहीं तैयार की गई। इस सम्पूर्ण विचार विमर्श में
प्रमुख भूमिका स्वामी दयानन्द सरस्वती की ही थी।
विचार विमर्श तथा योजना-निर्धारण के उपरान्त स्वामी
जी तो हरिद्वार में ही रुक गए तथा अन्य पाञ्चों राष्ट्रीय
नेता योजना को यथार्थ रूप देने के लिए अपने-अपने स्थानों
पर चले गए। उनके जाने के बाद स्वामी जी ने अपने कुछ
विश्वस्त साधु संन्यासियों से सम्पर्क स्थापित किया और
उनका एक गुप्त सङ्गठन बनाया। इस सङ्गठन का
मुख्यालय इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में महरौली स्थित
योगमाया मन्दिर में बनाया गया। इस मुख्यालय ने
स्वाधीनता समर में उल्लेखनीय भूमिका निभायी। स्वामी जी
के नेतृत्व में साधुओं ने भी सम्पूर्ण देश में क्रान्ति का
अलख जगाया। वे क्रान्तिकारियों के सन्देश एक स्थान से
दूसरे स्थान पर पहुञ्चाते, उन्हें प्रोत्साहित करते और
आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी हथियार उठाकर अङ्ग्रेजों
से सङ्घर्ष करते। सन् १८५७ की क्रान्ति की सम्पूर्ण
अवधि में राष्ट्रीय नेता, स्वामी दयानन्द सरस्वती के
निरन्तर सम्पर्क में रहे।
स्वतन्त्रता-सङ्घर्ष की असफलता पर भी स्वामी जी
निराश नहीं थे। उन्हें तो इस बात का पहले से ही आभास था
कि केवल एक बार प्रयत्न करने से ही स्वतन्त्रता प्राप्त
नहीं हो सकती। इसके लिए तो सङ्घर्ष की लम्बी प्रक्रिया
चलानी होगी। हरिद्वार में ही १८५५ की बैठक में बाबू कुंवर
सिंह ने जब अपने इस संघर्ष में सफलता की संभावना के
बारे में स्वामी जी से पूछा तो उनका बेबाक उत्तर था
"स्वतन्त्रता सङ्घर्ष कभी असफल नहीं होता। भारत
धीरे-धीरे एक सौ वर्ष में परतन्त्र बना है। अब इसको
स्वतन्त्र होने में भी एक सौ वर्ष लग जाएङ्गे। इस
स्वतन्त्रता प्राप्ति में बहुत से अनमोल प्राणों की आहुतियां
डाली जाएङ्गी।" स्वामी जी की यह भविष्यवाणी कितनी
सही निकली, इसे बाद की घटनाओं ने प्रमाणित कर दिया।
स्वतन्त्रता-सङ्घर्ष की असफलता के बाद जब तात्या
टोपे, नाना साहब तथा अन्य राष्ट्रीय नेता स्वामी जी से
मिले तो उन्हें भी उन्होंने निराश न होने तथा उचित समय
की प्रतीक्षा करने की ही सलाह दी।
१८५७ की क्रान्ति के दो वर्ष बाद स्वामी जी ने स्वामी
विरजानन्द को अपना गुरु बनाया और उनसे दीक्षा ली।
स्वामी विरजानन्द के आश्रम में रहकर उन्होंने वेदों का
अध्ययन किया, उन पर चिन्तन किया और उसके बाद अपने
गुरु के निर्देशानुसार वे वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार में
जुट गए। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने आर्य
समाज की भी स्थापना की और उसके माध्यम से समाज-
सुधार के अनेक कार्य किए। छुआछूत, सती प्रथा, बाल
विवाह, नर बलि, धार्मिक संकीर्णता तथा अन्धविश्वासों के
विरुद्ध उन्होंने जमकर प्रचार किया और विधवा विवाह,
धार्मिक उदारता तथा आपसी भाईचारे का उन्होंने समर्थन
किया। इन सबके साथ स्वामी जी लोगों में देशभक्ति की
भावना भरने से भी कभी नहीं चूकते थे।
प्रारम्भ में अनेक व्यक्तियों ने स्वामी जी के समाज सुधार
के कार्यों में विभिन्न प्रकार के विघ्न डाले और उनका
विरोध किया। धीरे-धीरे उनके तर्क लोगों की समझ में आने
लगे और विरोध कम हुआ। उनकी लोकप्रियता निरन्तर
बढ़ने लगी। इससे अङ्ग्रेज अधिकारियों के मन में यह इच्छा
उठी कि अगर इन्हें अङ्ग्रेजी सरकार के पक्ष में कर लिया
जाए तो सहज ही उनके माध्यम से जनसाधारण में अङ्ग्रेजों
को लोकप्रिय बनाया जा सकता है। इससे पूर्व अङ्ग्रेज
अधिकारी इसी प्रकार से अन्य कुछ धर्मोपदेशकों तथा
धर्माधिकारियों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर अपनी
तरफ मिला चुके थे। उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती को
भी उन्हीं के समान समझा। तद्नुसार एक ईसाई पादरी के
माध्यम से स्वामी जी की तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड
नार्थब्रुक से मुलाकात करवायी गई। यह मुलाकात मार्च
१८७३ में कलकत्ता में हुई।
अङ्ग्रेजों को तीखा जवाब
इधर-उधर की कुछ औपचारिक बातों के उपरान्त लॉर्ड
नार्थब्रुक ने विनम्रता से अपनी बात स्वामी जी के सामने
रखी- "अपने व्याख्यान के प्रारम्भ में आप जो ईश्वर की
प्रार्थना करते हैं, क्या उसमें आप अङ्ग्रेजी सरकार के
कल्याण की भी प्रार्थना कर सकेङ्गे।"
गर्वनर जनरल की बात सुनकर स्वामी जी सहज ही सब
कुछ समझ गए। उन्हें अङ्ग्रेजी सरकार की बुद्धि पर तरस
भी आया, जो उन्हें ठीक तरह नहीं समझ सकी। उन्होंने
निर्भीकता और दृढ़ता से गवर्नर जनरल को उत्तर दिया-
"मैं ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी
यह स्पष्ट मान्यता है कि राजनीतिक स्तर पर मेरे
देशवासियों की निर्बाध प्रगति के लिए तथा संसार की
सभ्य जातियों के समुदाय में आर्यावर्त (भारत) को
सम्माननीय स्थान प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य है कि
मेरे देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो।
सर्वशक्तिशाली परमात्मा के समक्ष प्रतिदिन मैं यही
प्रार्थना करता हूं कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के जुए से
शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हों।"
गवर्नर जनरल को स्वामी जी से इस प्रकार के तीखे उत्तर
की आशा नहीं थी। मुलाकात तत्काल समाप्त कर दी गई
और स्वामी जी वहां से लौट आए। इसके उपरान्त सरकार
के गुप्तचर विभाग की स्वामी जी पर तथा उनकी संस्था
आर्य-समाज पर गहरी दृष्टि रही। उनकी प्रत्येक गतिविधि
और उनके द्वारा बोले गए प्रत्येक शब्द का रिकार्ड रखा
जाने लगा। आम जनता पर उनके प्रभाव से सरकार को
अहसास होने लगा कि यह बागी फकीर और आर्यसमाज
किसी भी दिन सरकार के लिए खतरा बन सकते हैं। इसलिए
स्वामी जी को समाप्त करने के लिए भी तरह-तरह के
षड्यन्त्र रचे जाने लगे।
हत्या का षड्यन्त्र
स्वामी जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे भी यही
आभास मिलता है कि उसमें निश्चित ही अग्रेजी सरकार का
कोई षड्यन्त्र था। स्वामी जी की मृत्यु ३० अक्टूबर
१८८३ को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हुई थी। उन
दिनों वे जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण
पर जोधपुर गये हुए थे। वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे।
यदाकदा महाराज जसवन्त सिंह भी उनके चरणों में बैठकर
वहां उनके प्रवचन सुनते। दो-चार बार स्वामी जी भी राज्य
महलों में गए। वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक वेश्या का
अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर
उसका अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामी जी को यह बहुत बुरा
लगा। उन्होंने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने
विनम्रता से उनकी बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से
सम्बन्ध तोड़ लिए। इससे नन्हीं स्वामी जी के बहुत अधिक
विरुद्ध हो गई। उसने स्वामी जी के रसोइए कलिया उर्फ
जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ
काञ्च डलवा दिया। थोड़ी ही देर बाद स्वामी जी के पास
आकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसके लिए
क्षमा माङ्गी। उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च
और जीवन-यापन के लिए पाञ्च सौ रुपए देकर वहां से विदा
कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न करे। बाद में जब
स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया
तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में रहा।
उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को
हल्का विष पिलाता रहा। बाद में जब स्वामी जी की तबियत
बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया
गया। मगर तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। स्वामी जी
को बचाया नहीं जा सका।